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लेख

भारतीय राष्ट्रीयता

आनंद केंटिश कुमारस्वामी

अनुवाद - मनोज कुमार राय


(एसेज इन नेशनल आइडियलिज़्म से)

राष्ट्रीय आत्मचेतना जिससे राष्ट्रीयता संगठित होती है किन आयामों के कारण सम्भाव्य होती होगी? नि:संदेह किसी प्रकार की एकता तो आवश्यक है। यद्यपि एकता के कुछ प्रकार ऐसे हैं जो अनावश्यक हैं, और कुछ अपर्याप्त। उदाहरण के लिए उत्तर अमेरिका के नीग्रों लोगों की नस्ली एकता किसी राष्ट्रीयता की पूरक नहीं। नस्ली एकता न्यून कारक है; ब्रिटेन की ओर देखिये जिसका गठन नाना प्रकार के नस्लों से मिलकर हुआ है, लेकिन वह राष्ट्रीय आत्मचेतना का अच्छा उदाहरण है। एक और उदाहरण देखें. आयरिश वासियों में कई लोग असल में अंग्रेजी मूल के हैं। कीटिंग और एमेट जैसे नार्मन वंश से थे, लेकिन इसके कारण आयरिश राष्ट्रभाव और आत्मचेतना की अभिव्यक्ति में कोई कमी नहीं आती है। साथ ही चेतना की अभिव्यक्ति के लिए सामान्य और विशेष भाषा की भी दरकार नहीं; स्विट्ज़रलैंड जहाँ तीन भाषाओँ में बटा हुआ है वही आयरलैंड दो में।

राष्ट्रीयता के दो अनिवार्य तत्त्व हैं- एक भौगोलिक पूर्णत्व, और दूसरा एक्य(आम) ऐतिहासिक उद्भव व संस्कृति। यह दोनों तत्त्व कई और विभिन्न संयोगों के साथ भारत की बनावट में प्रचुरता से हैं जिससे ऐतिहासिक परंपरा को मजबूती मिलती है।

भारत की भौगोलिक पूर्णत्व का साक्ष्य मानचित्र पर नुमायान है और मेरे विचार में यह कभी विवादित नहीं रहा। सामाजिक एकता की पहचान भारतीय संस्कृति के अध्येता के लिए प्रकट रही है। इस विचार को एक से अधिक बार व्यक्तिगत शासकों द्वारा पहचाना गया है, चाहे वह अशोक हों, विक्रमादित्य हों या अकबर। इस विचार को महाभारत काल में ही पहचान लिया गया था। उल्लेखनीय है कि जब युधिष्ठिर ने अपने सार्वभौम सत्ता का उद्घोष करने के लिए राजसूय यज्ञ का आयोजन किया था तो इस अवसर आयोजित भव्य सभा में भीम, धृतराष्ट्र और उनके सौ पुत्रों सहित गंधार नरेश सुबाला आदि और सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर तक के प्रतिनिधि आये थे। (द्रविड़, सिलौन और कश्मीर) कई गाथाओं में भी हमें हिमालय पर देवताओं की ऐसी सभाओं के सन्दर्भ मिलते हैं जब आपसी मतभेद तो दूर करने के प्रयास होते रहे थे। कोई यह नहीं कह सकता कि ऐसे मांडलिक और संघीय भारतीय राज्य की परिकल्पना भारतीय मनीषा के लिए नयी बात है। ऐसे स्पष्ट साक्ष्य हैं कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता और धर्म के संस्थापकों (हम उन्हें ऋषि कह सकते हैं) ने इस एकता पर ध्यान केन्द्रित किया और यही कारण है कि आज ऐसा प्रतीत होता है कि यह एकता भारतीय संस्कृति में पूर्णता से व्याप्त है। यह बेवजह तो नहीं कि भारत के धर्मस्थल अनेक हैं और जो कोई भी एक से अधिक स्थलों पर तीर्थ-यात्रा को निकले उसे भारतीय भूमि पर सैकडों मील की यात्रा करनी होगी? बनारस बौद्धों और हिन्दुओं के लिए एक समान पवित्र है; सिलौन में समनाला बौद्धों, हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए एक जैसा पवित्र है। क्या हिमालय के लिए हर भारतीय के मन में पवित्र श्रद्धा का कोई अर्थ नहीं? क्या वह अवधारणा अर्थविहीन है जो एक शास्त्रसम्मत/धर्मनिष्ठ हिन्दू को सागर न पार करने और मातृभूमि को न छोड़ने के लिए बाध्य करती है? क्या गंगा के प्रति भारतवासियों का भावुक अर्चनागीत विचार योग्य नहीं है? 'सात महत्वपूर्ण नदियाँ' जैसे वाक्यांशों में कितना कुछ छूपा हुआ है! उत्तर (भारत) में एक हिन्दू और सिलौन में एक बौद्ध निम्नलिखित मंत्र को अनुष्ठानिक प्रक्षालन करते समय बार-बार दोहराता है: ' ॐ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती, नर्मदे, सिन्धु कावेरी जले स्मिन सन्निधिम कुरु." हम भारतीय शिक्षा और संस्कृति के आधारभूत महाकाव्यों और कालिदास की लोकप्रिय और सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला काव्य मेघदूत पर भी विचार करें। क्या इनमें मातृभूमि के लिए प्रेम और बोध की अभिव्यक्ति नहीं है? भारत की 'पुण्य भूमि' कहीं दूर-दराज फिलिस्तीन में नहीं बल्कि भारत की भूमि ही है।

सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति की धारा में भूमि की प्रधानता भारत के विचार में ऐसे रची-बसी है कि किसी ने इससे अलग कुछ सोचने की आवश्यकता महसूस नहीं की होगी। "बृहत् चौहद्दी के अंतर्गत हर प्रान्त राष्ट्रीयता की पूर्णता के लिए अपना योगदान देता रहा है। कोई भी स्थान दूसरे स्थान के विशेष महत्व और उसकी भूमिका का दोहराव नहीं करता।" उदाहरण के लिए सिलौन को देखिये, आज जिसके लोग भारत के किसी और स्थान की तुलना में अधिक विराष्ट्रीयकृत हैं। क्या हम सिलौन के बिना भारत को पूर्ण मान सकते हैं? सिलौन पाली साहित्य और दक्षिण बौद्ध दर्शन के निवास स्थल के रूप में अनुपम है और काल की निरंतरता को जिस तरह से यहाँ संरक्षित किया गया है वह भारतीय कालक्रम में अवतरित हुए कुछ दोषों में सुधार करने में कारगार है। सिंहल कला, धर्म और समाज हमारे सामने प्राचीन हिन्दू संस्कृति की उस रूप-रेखा को प्रस्तुत करता है जो संभवतः आधुनिक भारत में आज मिलना कठिन है। सभी भारतीय महाकाव्यों में सबसे उदात्त राम और सीता की प्रेम कहानी, हर भारतीय के मन में भारत और सिलौन की एकता को रेखांकित करती है।... कालांतर में उत्तर भारत का सिलौन से सम्बन्ध कई इतिहासों में रेखांकित है, चाहे वह अशोक के दूत-कर्म पर विजय का उत्प्रवास हो, या बाद में एक सिंहली राजकुमारी का राजपूत वधु बनना हो। इस राजकुमारी को ऐसा अपनत्व और प्रेम ऐसा मिला कि उसने मृत्यु को राजपूत सम्मान से जोड़कर उसे अपनाने में झिझक नहीं हुई। आज भी उत्तर भारत के लोगों को उस राजकुमारी का नाम सुन्दरता और शौर्य के पर्याय के रूप में स्मरण है। ठीक इसी तरह भारत का हर भाग सार्वलौकिक ऐतिहासिक परंपरा और आध्यात्मिक सगोत्रता में एकीकृत है; वे एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते, अलग रह नहीं सकते।

भारत के विविध लोग उस जादुई खेल की तरह हैं जहाँ उनका मिलना असंभव दिखाई देता है; उनका साथ होना एक गुत्थी है। लेकिन यह गुत्थी एक ऐसी कुंजी की प्राप्ति से खुलती है जिसे हम राष्ट्रीय आत्मचेतना कहते हैं। मुझे अक्सर मरियम और अली नूर-अल-दिन की कहानी वाली उस किरेन लड़की के वीणा की याद आती है। उसे "सोने की लटकन वाले हरे रंग के मखमली कपड़े में" रखा गया था। उसने उस थैले को लिया और "उसे खोला, हिलाया और उसके भीतर से लकड़ी के दो-तीन टुकड़े आ गिरे, जिसे उसने एक में दूसरे को,स्त्री में पुरुष को, पुरुष में स्त्री को बिठा कर तब तक जतन किया जबतक कि वह भारतीय कारीगरी में गढ़ा गया वीणा न बन गया। फिर लड़की ने वीणा को अपनी कोख में रखकर उसके तारों पर अपनी उँगलियाँ फेरनी शुरू की; वादन होते ही जैसे वीणा ने रोना आरम्भ कर दिया; वह उस जल स्रोत को याद करने लगी जिसने उसे पानी दिया था, उस भूमि को जहाँ से वह जन्मी थी, उस काष्ठकर्मी को जिसमें लकड़ी के उस कुंदे को वीणा का स्वरुप प्रदान किया, उस व्यापारी को जिसने उसे बेचा, उस जहाज को जिसके सहारे वह परदेस लायी गयी थी; ऐसा प्रतीत होता था कि वह वीणा इन सबसे प्रश्न पूछ रही थी और अपनी करुणा संगीत से इन्हें उत्तर भी दे रही थी।" भारत भी उसी वाद्ययंत्र की भांति है जहाँ हर भाग अलग तो दिखाई देता है लेकिन वे सभी एक-दूसरे के पूरक के रूप में निर्मित हुए हैं; जिन्हें जब एकत्र करके एक साथ लयबद्ध किया जायेगा तब भारत भी उस धरती की कहानी कहेगा जहाँ से वह जन्मा है, उस जल की याद करेगा जिसे वो पीता रहा है; और उन निर्मंताओं को सामने लायेगा जिन्होंने उसे आकार दिया है। उस दिन भारत केवल एक सुरीली ध्वनि नहीं होगी, वह आशा का स्रोत होगा जो सभी को तब आशा देगा जब उसकी सबसे अधिक आवश्यकता होगी।

अभी तक मैंने केवल हिन्दुओं और हिन्दू संस्कृति की बात कही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हिन्दू भारत में आबादी का मुख्य भाग हैं और भारतीय संस्कृति का बड़ा भाग भी हिन्दू ही है। लेकिन अभी ऊपर जिस उद्धरण का सहारा लिया गया था वह अरबी अदब से है और यह रेखांकित करना होगा कि भारतीय संस्कृति के क्रमिक विकास में मुहम्मदी और फारसी-अरबी संस्कृति का एक बड़ा योगदान है जैसा कि हमें आज पता है। आज ऐसे भारत की कल्पना नहीं की जा सकती जहाँ मुग़लों का शासन नहीं था, जहाँ ताज महल नहीं बनाया गया और जो फारसी कला और साहित्य से रिक्त है। कुछ ही भारतीय शासकों ने अकबर की तरह सत्ता का उदाहरण प्रस्तुत किया है, और उसकी तरह मजहबी उदारता दिखाई है। आक्रान्ताओं की विरासत पर ही उसने हिन्दू-मुसल्मान विवाद से परे जाकर उनमें समन्वय और विश्वास का सृजन किया जो आज के बंगाल से कहीं बेहतर है। वह यह जानता था कि हिन्दू-मुसलमाओं के स्वार्थ विविध नहीं हैं और उनके साथ आज के बंगाल के बनिस्पत अधिक निष्पक्ष व्यवहार करता रहा। बाँट कर शासन करने की नियति उसके भीतर नहीं थी। अधिकांश पूर्वी शासकों की ही तरह उसने अपनी पहचान अपने साम्राज्य के साथ जोड़ दिया और ऐसे हर स्वार्थ को दबा दिया जो उसके हितों के विपरीत हो। आधुनिक काल को छोड़कर पूर्व में यह लगभग हर विदेशी आक्रान्ता की नियति रही है कि उन्होंने दूर से बैठकर शासन नहीं किया। ईसा से दो सदी पहले एक तमिल ग्राही, ईलाल, का शासन इतना परोपकारी था कि दो हज़ार वर्षों बाद भी उसके मकबरे पर लोग सम्मान प्रकट करते हैं। और अधिक आधुनिक उदाहरण 18वी सदी के तमिल (हिन्दू) शासक कृति श्री और उसके दो भाइयों का है, जो सिंहली लोगों के इतने निकट हो गए थे कि उनके बारे में कहा गया कि वे "धर्म और लोगों के साथ मिलकर एक हो चुके थे।" यह कहने के लिए कि आज भी ऐसे उदाहरण मौजूद हैं हम हैदराबाद, बरोडा और ग्वालियर की ओर देख सकते हैं।

एक क्षण के लिए अगर भारतवासियों में व्याप्त विवधता और अंतर को अगर दोगुना भी मान लें,जैसा कि कहा जाता है, फिर भी यह अंतर भारत और यूरोप की तुलना में नगण्य है। पश्चिमी सत्ता हर मायने में एक विदेशी सत्ता दिखाई देती है अगर इसकी तुलना हिन्दुओं द्वारा मुसलमानों पर राज से करें या उसके विपरीत मुसलमाओं द्वारा हिन्दुओं पर से। इस अन्य देशीय सत्ता का अर्थ क्या है? जॉन स्टुअर्ट मिल के शब्दों में: "लोगों का अपने द्वारा अपनी सरकार बनाने का मतलब है लेकिन अपने लिए किसी ओर से सरकार बनवाने का कोई अर्थ नहीं। एक तरह के लोग दूसरे लोगों को केवल अपने उपयोगों के लिए बचाए रख सकते हैं, अपने लोगों का पेट भरने के लिए उनकी भूमि पर खेती करवा सकते हैं, अपने लोगों के मुनाफे के लिए उनका दोहन कर सकते हैं।" 'श्वेत लोगों के कर्तव्यों' जैसी कोई भी कठबोली इन तथ्यों का काट नहीं हो सकती। हमें लगता है कि पूर्व पर पश्चिम का वर्चस्व मानवता के उत्कृष्ट मूल्यों के क्रमिक विकास में एक भयावह अवरोध है। 'श्वेत लोगों के कर्तव्यों' की अवधारणा एशियाई भाषाओँ में अनुवादित करने पर 'श्वेत आपदा' बन जाती है। हम ऐसा इसीलिए नहीं कहते क्योंकि हम यूरोपीय सभ्यता और उसकी उपलब्धियों का तिरस्कार करते हैं बल्कि हम यह स्मरण करवाना चाहते हैं कि केवल यूरोपवासियों से भरा संसार एक ऊसर स्थल होगा, ठीक वैसे ही जैसे केवल भारतीय और चीनियों से भरा संसार अभागा/विपन्न दिखाई देगा। इसीलिए हमें स्वयं में यह विश्वास पैदा करना होगा कि हमारी राष्टीय आत्मचेतना सुदृढ़ है, और यह अपने-पराए दोनों के लिए समान रूप से लाभप्रद है तथा यह दूसरे नस्लों के प्रति किसी कडवाहट और बहिष्करण की चेतना का शिकार नहीं हुई है। हालांकि शायद कुछ समय के लिए ऐसी भावनाएं अपरिहार्य हो सकती हैं । और यह दिखाने के लिए कि हम किस भावना से आगे बढ़ते रहें हैं, हमारे पास भारतीय लोगों की एकता में विश्वास करने वाले बयान है जैसे कि शिव नारायण के सिद्धांत और सुन्दर राष्ट्रीय गीत 'बन्दे मातरम' जो जाग्रत भारत के ध्येय और शक्ति को अभिव्यक्ति देता है, ठीक उसी तरह जैसे मर्सेइल्लैस ने एक जागृत फ़्रांस के आदर्श को उभारा और एथना कार्बेर्री के गीतों में आयरलैंड की भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई।

ऐसे शब्द-भाव अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित और दिशाहीन लोगों की बोली नहीं होते। यह भाव भारतीय लोगों की अपनी मातृभूमि से प्रेम, उसकी महानता और उसकी सुन्दरता में उनके विश्वास की कथा है। वे एक भारतीय राष्ट्र की कलकल ध्वनि हैं जो कभी निराश और नदारद नहीं होगी।


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